गांधी जी के अग्रणी सत्याग्रह आंदोलनों में से कुछ, जैसे कि नमक सत्याग्रह, चम्पारण सत्याग्रह, और खेड़ा सत्याग्रह, ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ये आंदोलन ने सामाजिक न्याय की ओर कदम बढ़ाने में मदद की।
सत्याग्रह अर्थात सत्य व न्याय के लिए आग्रह करना। क्योंकि गांँधी जी ने टालस्टाय से सीखा था कि कोई भी आन्दोलन शांति और प्रेम के मार्ग पर चलकर जीता जा सकता हैं। इसी का प्रयोग गांँधी जी ने किया और भारत आजाद हो गया।
जन्म - 2 अक्टूबर, 1869
मृत्यु - 30 जनवरी, 1948
विवाह - 1982
- विदेश यात्रा- 1983 इंग्लैंड और इंग्लैंड से दक्षिण अफ्रीका एक मुकदमा के पैरवी हेतु चले गए।
- दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस- 9 जनवरी 1915 इसलिए हर वर्ष 9 जनवरी को भारत में प्रवासी दिवस मनाया जाता हैं। इसका उद्देश्य है कि इस दिन हो सके तो विदेश में रहने वाले प्रवासी भारत लौट सके।
गांधीजी के गुरु गोपाल कृष्णा गोखले थे। इन्होंने बातचीत के क्रम में कहा कि अगर साम्राज्यवादी ताकतों से लड़ना हैं। अर्थात् उनके खिलाफ क्रांति करना है तो पहले क्रांतिकारियों को पढ़िए। अपने गुरु की बात मानकर गांधीजी क्रांतिकारी 'रस्किन' और 'टाल्सटाय' को पढ़ा। रस्किन से भूख हड़ताल और टाल्सटाय से अहिंसक आन्दोलन करने का मंत्र सीखा। गांँधी जी को गुरु गोखले ने कहा कि दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस जाने पर एक साल तक कुछ नहीं करेंगे। एक साल छात्रों की तरह जीवन व्यतीत करना हैं। गांँधी जी ने वैसा ही किया। वर्ष 1915 से 1916 के बीच छात्रों की तरह जीवन व्यतीत किया। अर्थात् 1915 से 1916 के बीच किसी भी प्रकार का राजनीतिक आंदोलन नहीं किया। 1916 में पहली बार लखनऊ अधिवेशन में भाग लिया था।
- 1916 में साबरमती का आश्रम बनवाया। आश्रम बनाने में आम्बालाल साराभाई ने आर्थिक मदद किया था।
- Finix Form नामक संस्था की स्थापना की थी। इसके माध्यम से पहली बार विदेश में गांधी जी ने आंदोलन किया था।
भारत में पहला आंदोलन 1917 में चम्पारण आन्दोलन किया था। जिसे तीन कठियाँ नियम भी कहा जाता हैं। क्योंकि अंग्रेजों ने नियम बना दिया था कि चम्पारण के किसान 20 कट्ठा में 3 कट्ठा भूमि पर नील की खेती करेंगे। परिणाम होता था कि जितनी भूमि पर नील की खेती होती थी। उतनी भूमि बंजर हो जाती थी। इस कारण से चम्पारण के नीलहे किसान दुःखी थे। और भीतर-भीतर आक्रोशित भी थे। इसे देख गांँधी जी काफी दुखी हुए। अंग्रेजों के इसी नियम को तोड़ने के लिए चम्पारण में पहला आन्दोलन 1917 में किये थे और सफल भी हुए थे।
गांँधी जी ने दूसरा आन्दोलन भारत में गुजरात के खेड़ा में किसानों के लिए 1918 में किये और सफल भी हुए।
गांँधी जी ने तीसरा आन्दोलन भी गुजरात के अहमदाबाद में मील मजदूर के लिए 1918 में किये। इस आन्दोलन में मामला फंस गया। अर्थात् गांँधी जी को सफलता न मिलने का अन्देशा हो गया। तब रस्किन से प्राप्त मंत्र भूख पड़ताल का सहारा लिए और सफल भी हुए। गांँधी जी का यह पहला भूख पड़ताल था।
1919 में रौलेट एक्ट का विरोध किये थे। यह अंग्रेजों द्वारा लाया गया, ऐसा कानून था कि इसके अनुसार किसी भी भारतीय को बिना किसी कारण बताए ही गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया जाता था। इसे काला कानून कहा गया। इस काले कानून के खिलाफ गांधी जी ने आंदोलन किया। इसी कानून को खत्म करने के लिए विरोध शुरू हुआ। इसी दौरान 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग काण्ड हो गया। जिससे दुखी होकर गांँधी जी ने 'कैसर-ए-हिंद' की उपाधि अंग्रेजों को लौटा दिया। इस काण्ड से दुःखी होकर गांँधी जी ने अंग्रेजो के खिलाफ असहयोग आंदोलन 1920 में शुरू किया।
जलियांवाला बाग काण्ड की जांँच के लिए 'हण्टर आयोग' का गठन किया गया था।
असहयोग आन्दोलन सफल नहीं होते देख चिन्तित थे। इसी बीच असहयोग आन्दोलनकारी चौरा-चौरी जो उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के पास एक थाना के पास भीड़ ने थाना कर्मियों को देख दौड़ने लगे। भीड़ के आक्रोश को देखकर थाना कर्मी भागकर थाना में जा पहुंँचे और सभी अपने को थाना रूम में बंद होकर भीतर से ताला बंद कर लिया था। तब भीड़ ने बाहर से ताला बन्द कर दिया। इसके कारण थाना कर्मी अब बाहर नहीं निकल सकते थें। इसके बाद भीड़ ने मिट्टी तेल अंदर फेंक दिया और माचिस जला कर अंदर फेंक दिया और आग लग गई। इस आगजनी में 22 पुलिस कर्मी जल गए और उनकी मौत हो गयी थी। चौरा-चौरी काण्ड 05 फरवरी, 1922 में हुई थी और 22 पुलिसकर्मी की मौत हुई थी।
तब गांँधी जी को टाल्सटाय की प्रेरणा याद आयी कि आन्दोलन जीतने के लिए शांतिपूर्ण तरीकों की जरूरत होती हैं। क्योंकि टाल्सटाय के अनुसार हिंसक आन्दोलन से सफलता नहीं मिलती हैं। अंततः गांँधी जी को असहयोग आन्दोलन वापस लेना पड़ा। लेकिन नेहरू सहित भीड़ ने आन्दोलन वापस लेने के पक्ष में नहीं थे। जबकि गांँधी जी समझ गये थे कि हमलोग गलत रास्ता पर हैं। इसलिए आन्दोलन गांँधी जी ने वापस ले लिया था। जब चौरा-चौरी काण्ड हुआ था। उस समय गांँधी जी गुजरात में थे। फिर भी एक माह बाद गांँधी जी को गिरफ्तार कर लिया गया था। इसमें 6 साल की सजा हो गयी थी। एक माह बाद इसलिए गिरफ्तार किया गया था। क्योंकि अंग्रेजो को लगा कि तत्काल गिरफ्तार करने से और अशांति फैल जायेगी।
- 10 मार्च, 1922 को गिरफ्तार किया गया था।
- 12 फरवरी, 1922 को आन्दोलन वापस लिये थे।
- 1924 में कर्नाटक के बेलगांँव में कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लिये थे।
- 1930 सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू किया।
12 मार्च से 6 अप्रैल, 1930 में 'दाण्डी यात्रा' शुरू किये। दांडी यात्रा 78 लोगों से शुरू हुई थी। 26 दिन दाण्डी पहुंँचने में लगा था। दाण्डी पहुंँचते-पहुंँचते इस यात्रा में 20,000 लोग शामिल हो गए थे। यह यात्रा साबरमती से दाण्डी के तट तक की थी। वहांँ जा कर नमक बनाया गया और अंग्रेजों को कह दिया गया कि अब हम नमक बना लिए Tax नहीं देंगे। इसे नमक सत्याग्रह भी कहा गया हैं।
इस आन्दोलन के 20,000 की भीड़ देख गांँधी जी ने उत्साहित होकर सोचा कि इतनी संख्या में भीड़ हैं। इन्हें वापस क्यों जाने दे ? एक आन्दोलन और शुरू करने की तैयारी कर ली। 6 अप्रैल, 1930 को एक आन्दोलन शुरू कर दिया। जिसका नाम सविनय अवज्ञा आन्दोलन रखा।
इस आन्दोलन में सब कुछ अंग्रेजों के खिलाफ सविनय तरीके से होने लगा। यह देख तत्कालीन शासक इरविन ने गांँधी जी को कहा कि इंग्लैंड के प्रधानमंत्री मैकडोनाल्ड लन्दन में गोलमेज सम्मेलन हैं। आप वहांँ जाय। गांँधी जी ने इरविन से कहा कि मैं लन्दन नहीं जाऊंँगा। आपको जो करना हैं कर लिजिए। क्योंकि गांँधी जी सविनय अवज्ञा के तहत विरोध कर रहे थे। लन्दन में काफी अच्छी व्यवस्था थी। जब गांँधी जी नहीं गए तो मैकडोनाल्ड, इरविन पर गुस्सा गए कि गाँधी को क्यों नहीं भेजा। इससे मैकडोनाल्ड की बेइज्जती हुई। इरविन ने कहा कि भारत में गांँधी सब काम उल्टे कर रहा। यहांँ वह आन्दोलन पर बैठा हैं। मैकडोनाल्ड ने कहा कि किसी तरह भी गाँधी को लन्दन भेजो। गांँधी जी प्रथम गोलमेज सम्मेलन 1930 में नहीं गये थे। अब दूसरा गोलमेज सम्मेलन 1931 में निर्धारित हुआ और इरविन को कहा गया कि किसी तरह इस सम्मेलन में गांँधी को लन्दन भेजो। तब इरविन ने गांँधी जी को बुलवाया और कहा कि आपका सब बात हम मान लेते हैं लेकिन लन्दन अवश्य जाय। तब तय हुआ कि भारत के सारे जेल में बंद कैदियों को छोड़ दिया जाय। तब इरविन ने कहा कि ठीक है भारत के सभी राजनीतिक कैदियों को छोड़ दिया जाएगा। इसका लिखित भी हुआ। गांँधी जी मान गये और द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में लन्दन गांँधी जी गए। इधर सारे कैदी छोड़ दिए गये। लेकिन भगत सिंह और उनके साथी नहीं छोड़े गये। क्योंकि इरविन ने गांँधी जी के बात मानते हुए लिखित दिया था कि हम सारे राजनीतिक कैदियों को छोड़ देंगे। वैसा ही हुआ भी। लेकिन भगत सिंह और उनके साथी राजनैतिक कैदी के श्रेणी में नहीं थे। वे बम फेंकने वाले षड्यंत्रकारी कैदी थे। इसलिए वे लोग नहीं रिहा हुए थे। यहांँ गांँधी जी को इरविन की चाल समझने में गलती हुई कि इरविन के राजनीतिक कैदी वाली बात समझ में नहीं आयी या ध्यान ही नहीं दिया। ध्यान देने वाली बात थी कि– गांँधी जी ने कहा था कि सारे कैदियों को छोड़ दिया जाय। इरविन ने कहा ठीक हैं, हम सारे राजनीतिक कैदियों को छोड़ देते हैं। दोनों के तर्क में फर्क था। इसी फर्क के कारण भगत सिंह और उनके साथी नहीं रिहा हो सके। वैसे ये लोग रिहाई के लिए अपील भी नहीं कर रहे थे। इस तरह उधर गांँधी जी लन्दन चले गये और भगत सिंह और उनके साथी फांँसी पर चढ़ गये थे। द्वितीय गोलमेज में गांँधी जी देश को बचाया लेकिन इधर वीर सपूत फांँसी पर चढ़ गये। इस सम्मेलन में अंग्रेज प्रस्ताव दिये थे कि– मुस्लिम को अलग निर्वाचन क्षेत्र और दलित को अलग बना दिया जाए। गांँधी जी यह कह कर विरोध किए कि आजादी के बाद ये दोनों अलग-अलग देश बन जाएगा और गाँधीजी वापस भारत आ गये। तब तक भारत में भगत सिंह और उनके साथी फांसी पर चढ़ गए थे।
प्रथम गोलमेज सम्मेलन – 1930 में गांँधी जी नहीं गए।
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन – 1931 में गांँधी जी गए।
तृतीय गोलमेज सम्मेलन – 1932 में हुआ था।
तृतीय गोलमेज सम्मेलन में मैकडोनाल्ड ने घोषणा कर दिया कि भारत में दलित के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र होगा। तब फिर गांँधी जी ने इसका विरोध किया। 24 सितंबर, 1932 में गांधी जी और डॉ० भीमराव अम्बेडकर के बीच एक समझौता हुआ। जिसे पूना पैक्ट के नाम से भी जाना जाता हैं। इस समझौते में गांँधी जी ने कहा कि दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र मत माँगों। बल्कि आरक्षण माँग लो। चूँकि गोलमेज सम्मेलन में डॉ० आम्बेडकर ने अलग चुनाव क्षेत्र का माँग करते रहे थे। डॉ० अम्बेडकर ने गांँधी जी की बात मान गये थे।
1940 में व्यक्तिगत आन्दोलन शुरू किया। गांँधी जी को लगा कि अगर मैं अकेला आन्दोलन करूंँगा तो मुझे मरवा दिया जाएगा और आन्दोलन समाप्त हो जाएगा। इसलिए गांँधी जी ने व्यक्तिगत आन्दोलन शुरू किया। इस व्यक्तिगत आन्दोलन को 'दिल्ली चलो' आन्दोलन भी कहा जाता हैं।
1942 के आन्दोलन में गांँधी जी जेल चले गए थे। इसी दौरान उनकी पत्नी कस्तूरबा की मौत हो गई थी। फिर भी गांँधी जी को नहीं छोड़ा गया था। इसी बीच कैबिनेट मिशन भारत आया। जिसे गांँधी जी ने ठुकरा दिया था। और देश आजाद हो गया।
उपर्युक्त सभी आन्दोलन सत्याग्रह का ही अंश हैं।
जैसे– नमक सत्याग्रह, चम्पारण सत्याग्रह, खेड़ा सत्याग्रह, रौलेट एक्ट सत्याग्रह, बारडोली सत्याग्रह आदि। इन्हीं सत्याग्रहों के माध्यम से गांँधी जी ने देश की आजादी में अपना योगदान दिया। यह सत्याग्रह सत्य और अहिंसा के गर्भ से पैदा हुआ एक नैतिक बल हैं। इसी नैतिक बल के माध्यम से गांँधी जी भारत को आजाद कराने में योगदान दिया था।
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