Decision Making Theory - निर्णय लेने का सिद्धांत

                       


International Politics की दुनिया में द्वितीय विश्व-युद्ध (World war) के बाद अध्ययन के लिए कुछ ऐसे उपागमों को विकसित किया गया हैं जो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं के संदर्भ में समझना चाहता हैं और इसलिए इन्हें अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के आंशिक सिद्धांत (Partial Theory) के रूप में जाना जाता हैैं। ऐसे सिद्धांत विकसित करने वालों में कुछ ने वैदेशिक नीति (Foreign Policy) को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग मानते हुए वैदेशिक नीति के अध्ययन पर विशेष बल दिया हैं और उनका यह मानना हैं कि ऐसे अध्ययन से सम्पूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन की आवश्यकता बहुत हद तक पूरी हो सकती हैं, वैदेशिक नीति के अध्ययन के लिए निर्णय-निर्माण (Decision-Making Theory), खेल सिद्धांत (Game Theory), सौदेबाजी सिद्धांत (Bargaining Theory) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, ये सभी सिद्धांत किसी-न-किसी तरह से  वैदेशिक-नीति-निर्धारण के व्यवहार तथा ऐसी परिस्थितियों के अध्ययन से संबंधी हैं जिनके अंतर्गत रहकर नीति-निर्धारक निर्णय लेते हैंं,

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    जहांँ तक अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में निर्णय-निर्माण सिद्धांत के प्रचलन का सवाल हैं, इन संबंधों में उल्लेखनीय हैं कि पहले से ही समाजशास्त्र, मनोविज्ञान के अध्ययन एवं शोध में निर्णय-निर्माण उपागम का प्रयोग होता आ रहा था। बाद में इसका उपयोग राजनीतिशास्त्र में शुरू हुआ और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में वैदेशिक नीति के अध्ययन के लिए इसका प्रयोग होने लगा। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में निर्णय-निर्माण सिद्धांत को विकसित करने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान रिचर्ड स्नाइडर, एच॰ डब्ल्यू॰ ब्रुक तथा बर्टन स्पाइन का हैं। इन तीनों ही विद्वानों ने एक साथ मिलकर अपनी पुस्तक लिखी 'Foreign Policy Decision-Making An Approach To The International Politics'. इन विद्वानों ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में निर्णय करने वाले पदाघिकारियों के व्यवहार के विश्लेषण को आवश्यक माना। अपने इस प्रयास के क्रम में उन्होंने वैदेशिक नीति के अध्ययन के लिए एक अवधारणात्मक संरचना विकसित किया।

   रिचर्ड स्नाइडर (Richard Synder), ब्रुक (Bruck) तथा स्पाइन (Sapin) के अनुसार, कार्य का अस्तित्व तब होता हैं, जब कार्य करने वाले का लक्ष्य, साधन तथा परिस्थिति का निर्धारण किया जा सके। जिस तरह से Actor एवं Actress अन्य कर्त्ताओं के संबंध बैठाते हैं, उसी परिप्रेक्ष्य में उनके द्वारा परिस्थितियों को परिभाषित करने का कार्य बहुत हद तक कर्त्ता के स्वभाव के रुझान पर निर्भर करता हैं। हम किसी कार्य प्रणाली में State 'X' को एक भागीदार के रूप में ले सकते हैं जिसमें अन्य राष्ट्र भी सम्मिलित हो State 'X' कार्य एवं रुझान उसके पदाधिकारियों के द्वारा परिभाषित परिस्थिति के अनुरूप होते हैं। ये पदाधिकारी ही वास्तव में राष्ट्र के नाम पर काम करते हैं और उसके द्वारा परिभाषित परिस्थिति से ही कार्य सामने आता हैं।

    RichardBruck तथा Sapin ने कार्य परिस्थिति योजना को और स्पष्ट करतेे हुए राज्य को उसकेे सरकारी निर्णय कर्ताओं के रूप में परिभाषित किया। दूसरेे शब्दों में, वे पदाधिकारी जिनके कार्य-व्यवहारिक दृष्टिकोण से राज्य के कार्य समझेेे जाते हैं उन्हें ही राज्य के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। स्वयं Richard, Bruck तथा Sapin ने भी कहां हैं 'राज्य निर्णय-निर्माता हैं।'

   कहां गया है कि एक सरकारी निर्णयकर्ता ही वास्तविक निर्णयकर्ता होते हैं और उनके द्वारा परिभाषित परिस्थिति को राज्य द्वारा परिभाषित परिस्थिति समझी जाती है। स्वाभाविक रूप से राज्य (देश) के कार्यों कि समुचित जानकारी के लिए वैसा पदाधिकारीयों का व्यवहार को प्रत्यक्ष, प्रत्याशा तथा सूचना अधिकारी के संदर्भ में आंँका जा सकता है। यह आवश्यक है कि अच्छी तरह से समझे। क्योंकि उनकी गलत समझदारी के चलते गलत निर्णय हो सकते हैं।

   प्रत्यक्षण का अध्ययन कोई नया चीज नहीं हैं। परन्तु Decision-Making सिद्धांत में उसके महत्व को विशेष रूप से 2nd World War के बाद ही ध्यान दिया जाने लगा हैैं। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में कई गंभीर परिस्थितियों के उत्पन्नन होनेेेे का कारण उसकी परिस्थितियों को बहुत गलत ढंग से परिभाषित किया गया हैं या समझा गया हैं। चूंँकि निर्णय-निर्माण के लिए यह आवश्यक होता हैं कि परिस्थितियों को सही ढंग से समझा जाए इसलिए निर्णयकर्ताओं द्वारा उनकी सही समझदारी पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।

    निर्णयकर्ताओं के निर्णय में प्रत्यक्षण का भी महत्वपूर्ण हाथ होता हैं। प्रत्येक राज्य को भविष्य से कुछ आशाएँ होती हैं, परन्तु भविष्य में दूसरे राज्यों (देशों) का व्यवहार कैसा रहेगा, इस संबंध में कोई निश्चित भविष्यवाणी नहीं की जा सकती, ऐसी स्थिति में प्रत्याशाओं के चलते निर्णयकर्ताओं का परिस्थिति के संबंध में गलत प्रत्यक्षण हो सकता हैं। सूचना अतिभार के कारण निर्णयकर्ताओं के समक्ष समन्वय की समस्या उत्पन्न हो सकती हैं। कभी-कभी समन्वय की समस्या के कारण सूचनाओं की जांच करने में निर्णयकर्ता असफल सिद्ध हो जाते हैं।

    RichardBruck तथा Sapinने अंतरराष्ट्रीय राजनीति को सरकारी स्तर पर राज्यों (देशों) के अंतः क्रियाओं के रूप में ही देखा हैं, फिर भी वे इस बात को स्वीकार करते हैं कि कुछ ऐसे गैर सरकारी तथ्य या संबंध होते हैं, जिन्हें निर्णयकर्ताओं को ध्यान में रखकर कार्य करना होता हैं। वैसी परिस्थितियों एवं तथ्यों पर नीति-निर्धारकों को ध्यान में रखकर कार्य करना होता हैं। वैसी परिस्थिति एवं तथ्यों पर नीति-निर्धारकों को परिवेश की संज्ञा दी हैं। उनके अनुसार इस परिवेश के दो पहलू हैं—

  • बाह्य परिवेश और
  • आंतरिक परिवेश।

    बाह्य परिवेश का मतलब वैसे तथ्यों एवं परिस्थितियों से हैं जो राज्य की प्रादेशिक सीमाओं के बाहर हैं, ऐसे तथ्यों एवं परिस्थितियों में अन्य राज्यों के क्रिया तथा प्रतिक्रिया की प्रक्रिया आती हैं। बाह्य परिवेश के संबंध में यह बात ध्यान देने योग्य हैं कि यह परिवर्तन हमेशा होते रहते हैं। आंतरिक परिवेश में कुछ ऐसे तथ्य होते हैं जो राज्यों के नीति-निर्धारकों के व्यवहार को प्रभावित करते हैं। विश्व के किसी देश के प्रति उन निर्णयकर्ताओं का दृष्टिकोण एवं व्यवहार एक विशेष प्रकार का क्यों हैं? इसकी जानकारी के लिए आंतरिक परिवेश की जानकारी आवश्यक हैं। समाज कैसे कार्य करता हैं? देश की जनता का व्यवहार एवं स्वभाव कैसा हैं, आदि बातें आंतरिक परिवेश के अंतर्गत आती हैं।

मूल्यांकन –

 RichardBruck तथा Sapinने अंतरराष्ट्रीय राजनीति में जिस निर्णय-निर्माण उपागम को विकसित किया, उसे एक महत्वपूर्ण उपागम माना जाता हैं, फिर भी यह कई दोषों से ग्रसित हैं। सर्वप्रथम ये विद्वान अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को मुख्यतः वैदशिक नीति की अंतः क्रिया के रूप में देखा हैं, परंतु मात्र वैदेशिक नीति को सम्पूर्ण अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के रूप में स्वीकार करना उचित नहीं हैं।

    यद्यपि सामान्य रूप से स्वीकार किया जाता हैं, वैदेशिक नीति अंतर्रष्ट्रीय राजनीति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग हैं। फिर भी जैसा कि स्प्राउट और स्प्राउट ने कहा- "विदेश नीति अंतर्रष्ट्रीय राजनीति की उप व्यवस्था हैं।" तब यह उचित प्रतीत नहीं होता है कि मात्र वैदेशिक नीति के अध्ययन से ही समस्त अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन का उद्देश्य पूरा हो जाएगा।

    दूसरे, निर्णय-निर्माण उपागम से स्नाइडर तथा उसके सहयोगीयों ने बहुत सारे चर कारकों का उल्लेख किया हैं। उन चार कारकों को वितरित करना और उनके आधार पर निर्णय लेना एक मुश्किल कार्य हैं। स्वयं स्नाइडर ने भी इस बात को स्वीकार किया हैं।

    तीसरे, इन विद्वानों ने निर्णय-निर्माण सिद्धांत के लिए बहुत सारे चरों का उल्लेख किया हैं, परंतु इस बात का स्पाइडर तथा उसके सहयोगियों ने संकेत नहीं किया हैं कि विशेष परिस्थितियों में किन चरों को कितना महत्व दिया जाना चाहिए।

    चौथे, स्नाइडर ब्रुक तथा स्पाइन द्वारा प्रतिपादित कार्य, परिस्थिति, योजना तभी काम में लाया जा सकता हैं, जब विदेश नीति के क्षेत्र में निर्णय ले लिए गये हो, निर्णय लेने के पूर्ण वैदेशिक नीति की दिशा को अच्छी तरह से तय कर पाने में यह उपागम बहुत सहायक नहीं हो सकता।

    पांँचवें, यह भी हो सकता हैं कि विदेश नीति के निर्धारक परिस्थितियों तथा परिवेशों को समझने में सफल न हो वैसे स्थिति में परिस्थितियों के संबंध में निर्णयकर्ताओं की जानकारी उचित निर्णय के लिए सहायक सिद्ध नहीं हो सकती।

    Richard Synder, Bruck तथा Sapin के द्वारा प्रतिपादित निर्णय-निर्माण उपागम से संबंधित अन्य लेखकों एवं विद्वानों द्वारा कई प्रकार के संशोधन किये गए हैं, फिर भी इनके द्वारा प्रतिपादित उपागम को जैसाकि रैसेनाउ ने कहा हैं,

यह एक महानकृति हैं और उनके द्वारा बताए गए चर को जो वैदेशिक नीति के निर्धारण के समय किसी-न-किसी रूप में ध्यान में रखा जाता हैं। यह उचित नहीं भी हो सकता की वैदेशिक नीति और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं, परंतु इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि वह अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग हैं और वैदेशिक नीति को समझने के लिए निर्णयकर्ताओं के व्यवहार तथा उनके समक्ष उपस्थिति परिस्थितियों का विश्लेषण आवश्यक हैं।

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