जॉन ऑस्टिन का परिचय -
जॉन ऑस्टिन का जन्म इंग्लैंड के इप्सविच नामक गाॅव में 03 मार्च, 1790 ई॰ में हुआ था और उनकी मृत्यु बेब्रिज में अपने ही निवास स्थान पर 69 वर्ष की उम्र में सन् 1859 में हुई थी। जॉन ऑस्टिन अपने माता-पिता के सबसे बड़े संतान थे। वे विधिशास्त्री थे। विधिशास्त्र का अध्ययन करने जर्मनी गये थे। जॉन स्टुअर्ट मिल उनके शिष्य थे। ऑस्टिन काफी प्रतिभावान व्यक्ति थे। विधि-संबंधी उनके लेख कई पत्र-पत्रिका में प्रकाशित हुए, जिसके कारण उनकी ख्याति बढ़ी। पहले वे सेना में भी भर्ती हुए थे। सेना की सेवा छोड़कर वे वकालत करने लगे थे। फिर वे लंदन विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में सेवा दिए। विश्वविद्यालय में न्यायशास्त्र प्राध्यापक बने थे। वे कई संगोष्ठी (Seminar) में व्याख्यान भी दिए। हेनरी मेन का मानना था कि ऑस्टिन के देन के कारण ही विधि का दार्शनिक रूप सामने आया। जिन पर कर्तव्य, अधिकार, स्वतंत्रता, क्षति, दण्ड और प्रतिकार की धारणाएंँ आधारित थी। ऑस्टिन ने राजसत्ता के सिद्धांत का भी प्रतिपादन किया। ऑस्टिन इंग्लैंड का प्रसिद्ध विधिशास्त्री थे। जिन्होंने 1832 में अपनी एक पुस्तक प्रकाशित भी किया। जिसका नाम है– 'विधिशास्त्र पर व्याख्यान' (Lectures On Jurisprudence)। इसी पुस्तक में ऑस्टिन ने 'सम्प्रभुता का सिद्धांत' का प्रतिपादन किया था। कानून के संबंध में ऑस्टिन ने कहा कि 'उच्चत्तर द्वारा निम्नत्तर को दिया गया आदेश ही कानून हैं।' इसी मूल विचार के आधार पर ऑस्टिन ने सम्प्रभुता की धारणा का प्रतिपादन किया था। अपने मूल विचार के आधार पर उन्होंने कहा कि "यदि कोई निश्चित उच्च सत्ताधारी व्यक्ति, जो स्वयं किसी उच्च सत्ताधारी कि आज्ञापालन का अभ्यस्त नहीं हैं, किसी समाज के अधिकांश भाग से अपने आदेशों का पालन करता हैं, तो उस समाज में वह उच्च सत्ताधारी व्यक्ति प्रभुत्व शक्तिसम्पन्न होता है तथा वह समाज उच्च सत्ताधारी सहित एक राजनीतिक और स्वतंत्र समाज असता है।"
("if a determinant human Superior, not in the habit of obedience to a like Superior, receives habitual obedience from the bulk of a given society, that determinant Superior is the sovereign in the society and the society including the sovereign, is the society political and independent."– Austein in Lectures on juris prudence' Quoted by Garner in Political science and Government, page –179 ).
ऑस्टिन के सम्प्रभुता सिद्धांत की व्याख्या -
ऑस्टिन की संप्रभुता संप्रभुता हैं। सम्प्रभुता मनुष्य से चिंतित हैं। सम्प्रभुता किसी के आदेश का पालन करने के लिए बाध्य नहीं हैं। सम्प्रभुता सर्वोच्च है। यह बल, जनमत, स्वतंत्रता और राजनीतिक इच्छा पर आधारित हैं। सम्प्रभुता समादेश हैं। भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी द्वारा नोटबंदी की घोषणा समादेश था। चाहे नोटबंदी सही हो या गलत।
ऑस्टिन से पहले जेरेमी बेंथम ने सम्प्रभुता का सिद्धांत प्रतिपादित किया था। लेकिन ऑस्टिन बेंथम के सम्प्रभुता को अधूरा मानते हुए, उसे पूर्णता प्रदान की। ऑस्टिन का मानना था कि बेंथम की सम्प्रभुता सिर्फ सकारात्मक पहलूओं की ही व्याख्या की हैं। ऑस्टिन ने बेंंथम की सकारात्मक सम्प्रभुता में नकारात्मक पहलुओं को भी जोड़कर उसे पूूर्ण किया। ऑस्टिन का मानना है कि सम्प्रभु अन्य किसी भी व्यक्ति की आज्ञा को नहीं मानता, जिसे बेंथम ने अपने सिद्धांत में नजरअंदाज कर दिया था। ऑस्टिन की सम्प्रभुता-संबंंधी विचार के पीछे उसका प्राकृतिक कानून-संबंधी विचार निहित हैं। ऑस्टिन ने कहा कि "कानून उच्चत्तर द्वारा निम्नत्तर को दिया गया आदेश हैं।" ("Law is the command of the superior to the inferior.")। ऑस्टिन ने कानून के इसी सिद्धांत पर अपनी सम्प्रभुता-संबंधी विचार को विकसित किया। लेकिन यह भी सच्चाई है कि ऑस्टिन पर थॉमस हॉब्स और जेरेमी बेंथम का प्रभाव था। चूूँकि बेंथम ने भी अपना विचार व्यक्त करते हुए, बताया था कि एक राज्य और राजनीतिक समाज वही होगा, जहांँ एक व्यक्ति समूह या बहुसंख्यक लोग एक व्यक्ति या व्यक्ति-समूह की आज्ञा या आदेश का पालन करने में अभ्यस्त हो, क्योंकि उसका आदेश ही कानून होता है वह आदेश देने वाला व्यक्ति सर्वोच्च सत्ताधारी होता है और उसी में सम्प्रभुता निहित होती है। बेंथम के इस विचार का समर्थक है ऑस्टिन। बेंथम के इसी विचार को ऑस्टिन अपनी सम्प्रभुता को विकसित करने के लिए आधार भी बनाया।
हाॅब्स ने अपनी प्राकृतिक अवस्था के राजा को जितना और जिस प्रकार की सम्प्रभुता देने की वकालत की उसके कुछ चीजों का समर्थन किया है। चूँकि हाॅब्स की सम्प्रभुता निरंकुश हैं।
उपर्युक्त अध्ययन के आधार पर जॉन ऑस्टिन के सम्प्रभुता सिद्धांत की प्रमुख विशेषताओं को हम निम्नलिखित ढंग से देख सकते हैं-
1. सम्प्रभुता स्वतंत्र राजनीति समाज का एक आवश्यक तत्व हैं -
जिस प्रकार सजीव प्राणियों के लिए ऑक्सीजन आवश्यक हैं। उसी महत्व से किसी स्वतंत्र राष्ट्र के राष्ट्रीय-जीवन के लिए सम्प्रभुता आवश्यक हैं। बिना उसके स्वतंत्र रूप से कोई राष्ट्र संचालित नहीं हो सकता। इस संबंध में हेनरी मेन ने कहा है कि प्रत्येक राजनीतिक समाज में सम्प्रभुता उसी प्रकार आवश्यक हैं, जिस प्रकार पदार्थ के एक पिण्ड में आकर्षक-केंद्र का होना आवश्यक हैं। इस प्रकार सम्प्रभुता स्वतंत्र राजनीतिक समाज का एक आवश्यक तत्व या गुण हैं।
2. सम्प्रभुता एक निश्चित व्यक्ति या व्यक्ति-समूह में निवास करती हैं -
सम्प्रभुता के निवास के लिए एक निश्चित व्यक्ति या व्यक्ति-समूह का रहना आवश्यक हैं। अर्थात् सम्प्रभु मानवीय प्रधान हो और उसे प्रत्येक व्यक्ति आकार रूप में देख सकें। ताकि यह देखा या कहा जा सके कि अमूक व्यक्ति या व्यक्ति-समूह सम्प्रभु हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि रूसो के 'सामान्य इच्छा' में सम्प्रभुता निवास नहीं कर सकती। क्योंकि 'सामान्य इच्छा' को देखा नहीं जा सकता और न ही उसका कोई स्थूल रूप है न आकार।
अतः सम्प्रभुता व्यक्ति या व्यक्ति-समूह में ही निवास करती हैं।
3. सम्प्रभुता की आज्ञा का पालन जनता आदतन करती हैं -
सम्प्रभु की प्रभुत्व-शक्ति, समाज के अधिकांश लोगों से अपनी आज्ञा का पालन कराने की क्षमता रखता हैं। क्योंकि ऑस्टिन के अनुसार सम्प्रभु की आज्ञा ही कानून हैं। राज्य के भू-क्षेत्र में जितने भी मनुष्य या समुदाय हैं, वे सभी सम्प्रभु सत्ता के अधीन हैं। यदि ऐसा नहीं होगा तो सम्प्रभु और समाज के लोगों में शासन और शासित का संबंध स्थाई नहीं हो पाएगा।
अतः सम्प्रभु की आज्ञा का पालन जनता आदतन करती हैं।
4. सम्प्रभु असीम व निरंकुश हैं -
सम्प्रभु की शक्ति असीम व निरंकुश होती हैं। क्योंकि ऑस्टिन के अनुसार उसे कोई और अन्य शक्ति किसी प्रकार का आदेश नहीं दे सकती। अर्थात् राज्य में उससे ऊंँची अन्य कोई शक्ति नहीं होती हैं। राज्य हित में उसे किसी भी प्रकार का कानून बनाने, परिवर्तन करने व मिटाने का पूर्ण अधिकार प्राप्त होता है।
अतः सम्प्रभु असीम व निरंकुश है।
5. सम्प्रभु की आज्ञा ही कानून हैं -
सम्प्रभु के द्वारा ही कानूनों का निर्माण होता हैं। कानूनों का एक मात्र स्रोत वह आधार सम्प्रभु ही हैं। इस संबंध में ऑस्टिन ने कहा है कि कोई भी परंपरागत व्यवहार तब तक कानून नहीं है जब तक उसे सम्प्रभु द्वारा मान्यता प्राप्त न हो जाय।
अतः सम्प्रभु की आज्ञा ही कानून हैं।
6. सम्प्रभुता अविभाज्य हैं -
सम्प्रभुता का विभाजन नहीं हो सकता हैं। क्योंकि यह अदेय और स्थाई भी हैं। किसी एक राज्य में एक ही सम्प्रभुता हो सकती हैं, अनेक नहीं। जब यह एक से अधिक लोगों यानी 'संसद' में निहित होती हैं तो इसका मतलब यह नहीं होता है कि प्रभुसत्ता का विभाजन हो जाता हैं। एक से अधिक व्यक्ति अलग-अलग सम्प्रभुता का प्रयोग नहीं करते। वे मिलकर ही सारे निर्णय करते हैं। सम्प्रभुता का विभाजन उसका विनाश होता हैं। इसलिए सम्प्रभु शक्ति एक से अधिक लोगों के हाथों में केंद्रित होते हुए भी अविभाज्य रहती हैं।
अतः सम्प्रभुता अविभाज्य हैं।
7. सम्प्रभुता स्थाई हैं -
यह राज्य की एक अनिवार्य विशेषता हैं। कोई भी समाज तब तक राजनीतिक रूप से स्वाधीन नहीं माना जाएगा जब तक वह प्रभुत्व सम्पन्न न हो। ऑस्टिन ने राज्य को एक राजनीतिक और स्वाधीन समाज के नाम से पुकारा हैं और स्वाधीन समाज में प्रभुसत्ता का होना अनिवार्य हैं।
ऑस्टिन के सम्प्रभुता सिद्धांत के उपर्युक्त अध्ययन से ज्ञात होता हैं कि सम्प्रभुता स्थाई, अविभाज्य, अजेय, कानून, असीम, निरंकुश, अदृश्य और जनता द्वार स्वीकार्य राज्य की एक अनिवार्य तत्व हैं। इसके बिना कोई राज्य स्वतंत्रतापूर्वक अपने लिए न कानून का निर्माण कर सकता है न परिवर्तन कर सकता हैं और न ही कानून को मिटा सकता हैं। तब सबसे बड़ी बात यह है कि सम्प्रभुता विहीन कोई राज्य, राज्य ही नहीं होता। वह पराधीन राज्य की श्रेणी में आता हैं।
अतः सम्प्रभुता सम्पन्न राज्य ही स्वतंत्र राज्य होते हैं।
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