History Of Panchayati Raj And Implementation - पंचायती राज का इतिहास एवं क्रियान्वयन

लोकतंत्र की सबसे छोटी इकाई पंचायतों की स्थापना के बारे में जो सदियों से भारत के शासन संचालन का आधार रही थीं। सही मायने में लोकतंत्र वही होता है जिसमें देश के समस्त नागरिक शासन के कार्यों में किसी-न-किसी स्तर पर भाग लेते हों। इसके लिए लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को अपनाया जाना अति आवश्यक होता हैं। इसी आवश्यकता को ध्यान में रख कर पंचायती व्यवस्था को बहुत अधिक महत्व दिया जाने लगा हैं। त्रि-स्तरीय लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था का सबसे निचले पायदान की स्थानीय स्वशासन की एक इकाई है पंचायत। जो ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती हैं। लोक कल्याणकारी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में लोगों के कल्याण को ध्यान में रखकर प्रायः सभी कार्यों का निष्पादन किया जाता है और ये लोग अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करते हैं। इन्हीं लोगों के मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए और शासन को ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित करने के लिए पंचायती राज-व्यवस्था अर्थात् स्थानीय-स्वशासन की अवधारणा को विकसित करने की कोशिश प्राचीन काल से ही होता रहा हैं। हर काल में अपने-अपने ढंग व रूप में कार्यान्वित होता रहा हैं। आज के संदर्भ में पंचायती व्यवस्था की न्याय और कार्य को हम उपन्यास सम्राट और प्रख्यात कहानीकार मुंशी प्रेमचंद्र द्वारा रचित कहानी 'पंच परमेश्वर' के रूप में देखकर पंचायत की महत्ता को समझा जा सकता हैं।



पंचायती राज का ऐतिहासिक पृष्ठभूमि-


भारत में पंचायती राजव्यवस्था 2 अक्टूबर, 1959 का राजस्थान राज्य के नागौर जिला में सबसे पहले शुभारंभ हुआ था। भारत में यह व्यवस्था आदिकाल से ही हैं।

वैदिककाल में पंचायती राज -


इस काल में गांँव का प्रबन्ध गांँव के 'मुखिया' द्वारा होता था जिसे 'ग्रामिणी' कहा जाता था। गांँव की चौपाल पर बैठकर विमर्श हुआ करता था। चौपाल पर जो सभा होती थी। उसमेंं सभी स्थानीय नागरिक भाग लेते थे। इस सभा में 'राजा' भी सहमेें हुए ही जाता था। राजा को डर था कि कहीं सभा उसे पदच्युत न कर दें। अथर्ववेद में भी इसका उल्लेख है-

            सा उद्क्रामत् सा समायां न्यक्रामत्।
             सा उद्क्रामत् सा समितौ न्यक्रामत्।
             सा उद्क्रामत् सा आमन्त्रणो न्यक्रामत्।

   मनुस्मृति में ग्रामीण शासन के लिए जो कर्मचारी उत्तरदायी होता था उसे 'ग्रामीक' कहा जाता था। ग्रामीण का प्रमुख कार्य लोगों से 'करो' को वसूली करना था। साथ-ही-साथ ग्रामीक राजा के लिए विभिन्न सामाजिक परम्पराओं का पालन करना जरूरी था। इसके आधार पर ही विभिन्न वर्गों को अपने लिए नियम बनाने का अधिकार होता था।

उत्तर-वैदिककाल में पंचायती राज -


इस काल में 'रामायण' 'महाभारत' में भी पंचायतों की स्थिति अच्छी देखने को मिलती हैं। इस काल में राष्ट्रीय जीवन स्वशासन में अपने आपको अभियुक्त करता हैं। महाभारत के शांति पर्व में गांँवो के बारे में बड़ा ही विस्तृत वर्णन मिलता हैं।

बौद्धकाल में पंचायती राज -


इस काल में भी पंचायतों के बारे में जातक कथाओं के अध्ययन से पता चलता है कि गांँव के शासक को 'ग्राम भोजक' कहा जाता था। सभा ग्राम संगठन का एक मनोरंजक और महत्वपूर्ण अंग थी। इस सभा में गांव के वृद्ध लोग बैठते थे, जो परिवार में सबसे बूढ़े या बड़े होते थे। इस काल में ग्राम सभा के मुख्य कार्य न्याय करना, गांँव की आंतरिक सुरक्षा, सरकारी मकान, घाट, मंदिर, कुँँए, तालाब, कर वसूली व शिक्षा आदि थे।
 
   कौटिल्य (चाणक्य) ने भी अपनी पुस्तक 'अर्थशास्त्र' में ग्राम पंचायतों की स्थानीय शासन व न्याय-व्यवस्था के बारे में उल्लेख किये हैं। उसमें उन्होंने कहा है कि स्थानीय विवादों का निर्णय ग्राम के वृद्धों व सामंतो द्वारा किया जाता था। उन्होंने एक गांँव के मुखिया को ग्राम वृद्ध, पाँच गांँव के मुखिया को पंचग्रामी कहा था। इससे पत्ता चलता है कि अर्थशास्त्र में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण अथवा पंचायती व्यवस्था को सुसंगठित ढंग से उल्लेखित किया गया था।

मौर्यकाल में पंचायती राज -


इस काल में ग्रामीण व्यवस्था अत्यंत उत्कृष्ट अवस्था में थी। इस काल में ग्राम में ग्राम, संघ या ग्राम संस्था होती थी। ये ग्राम संघ अपराधियों को दंड देती थी और जुर्माना भी वसूल करती थी।

गुप्तकाल में पंचायती राज


इस काल में ग्राम पंचायत का अत्यधिक महत्व था। जबकि राजतंत्र होते हुए भी शासन का विकेंद्रीकरण कई स्तरों पर किया गया था‌। ग्रामीण मामलों के प्रबन्ध के लिए पदसोपानीय व्यवस्था बनाई गई थी। जैसे – दस गांँवों के गुट या समूह को संगृहण, 200 गांँवों को मिलाकर खरवातिक, 400 गांँवों के समूह को द्रोणमुख तथा 800 गांँवों के समूह को महाग्राम कहा जाता था। महाग्राम के बाद जनपद होता था। इसके मुखिया को स्थानिक कहा जाता था। इस काल में गांँवो की तरह ही नगरों के लिए भी प्रबन्ध व्यवस्था थी। नगरों के मुखिया को नागरिक कहा जाता था। जो गोप व स्थानिक की सहायता से नगर प्रबन्ध की व्यवस्था देखता था व प्रशासन चलाता था। उक्त प्रमुख की निर्वाचन गांँवों की जनता द्वारा सम्पन्न होता था। चुनाव ताड़-पत्रों पर उम्मीदवारों का नाम लिखकर उन्हें बर्तन में डाला जाता था। इसके बाद इस बर्तन में से एक बालक द्वारा इन ताड़-पत्रों (मतपत्रों) को निकाला जाता था। इस पद्धति को 'कुडबोलाई' पद्धति कहा जाता था गुप्तकाल के बाद के कालों में भी सुधारात्मक रवैया अपनाते हुए कमोबेश धीरे-धीरे पंचायती राज सुदृढ़ होते गयी।

मुगलकाल में पंचायती राज -


इस काल में पहले से चली आ रही पंचायत व्यवस्था में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया गया। लेकिन अफगान और कुछ मुगल शासक इस ओर विशेष ध्यान केंद्रित किया था और कहा था कि भारतीय ग्रामीण व्यवस्था एवं उसकी प्रथाओं में से किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप न किया जाए। परिणामस्वरूप भारतीय जीवन का आर्थिक व सामाजिक ढांँचा पहले की तरह ही कायम रहा।

   शेरशाह सूरी के कालखंड में भी स्थानीय शासन की इकाई गांव ही था जिसका प्रमुख मुखिया या मुकद्दम कहलाता था।

   अकबर के कालखंड में पंचायती राज संस्थाओं को काफी हद तक नैतिक व प्रशासनिक सहयोग प्राप्त था। इस काल में प्रत्येक गांँव के प्रशासन के लिए ग्राम पंचायतें होती थी। पंचायतों को चलाने के लिए नियम सुदृढ़ थे। इनका अपना क्षेत्राधिकार था। लेकिन आगे चलकर भूमि संबंधी कार्य पंचायतों से हटा लिए जाने के कारण पंचायत की स्थिति कमजोर होती गई। अर्थात् इस काल में भी पंचायत व्यवस्था थी।

ब्रिटिशकाल में पंचायती राज -


इस काल में अंग्रेजों का उद्देश्य शोषण करना था। इसलिए पंचायतों की जो व्यवस्था पहले से बनी हुई थी, उसमें परिवर्तन करना शुरू किया। अब पंचायतों में अधिकांश कर्मचारी नियुक्त किए जाने लगें। इस तरह पंचायतों का प्रशासन व्यवस्था धीरे-धीरे अंग्रेजों के हाथों में केंद्रित होने लगी थी। लॉर्ड कर्जन की केंद्रीकरण की नीति इन पंचायतों पर अंग्रेजों का वर्चस्व स्थापित कर दिया। इस संबंध में रमेश चंद्र दत्त ने कहा है कि "भारत में ब्रिटिश राज्य की सबसे दुखद स्थिति यह हुई कि उसने ग्राम राज्य की प्रथा को तहस-नहस कर दिया। जो विश्व के सब देशों की अपेक्षा भारत में सर्वप्रथम विकसित हुई और सबसे अधिक काल तक पनपी रही।"

   वारेन हेस्टिंग्स द्वारा लाई गई 'रेगुलेेशन एक्ट' (1773) ने इन पंचायतों के अधिकारों को एक के बाद एक छीने जाने लगे जो पहले मालगुजारी वसूली का काम पंचायतों पर था, वह अब जमींदार नियुक्त करके उसेेे दे दिया गया। न्यायधीशों के माध्यम सेे स्वेेेेेच्छाचारी व्यवहार करने लगे।

   एल्फिनस्टोन ने 1821 में पंचायतों को महत्व देने की वकालत की थी। 1857 में ग्रामीण स्वायत्तशासी निकायों को कुछ महत्व प्रदान करते हुए कुछ राज्यों मेंं जिला कोषों कि स्थापना की गई तथा ग्रामीण प्रशासन को भू-राजस्व, शिक्षा एवं पथ पर कर लगाने के अधिकार प्रदान किये गए। वर्ष 1882 में लॉर्ड रिपन ने ग्रामीण क्षेत्रों में बोर्डों अथवा मण्डलों की स्थापना का सुझाव दिया। लेकिन फिर भी पंचायती राज संस्थाएँ प्रभावहीन बनी रहीं। इस प्रकार ब्रिटिश काल में पंचायत व्यवस्थात का वजूद दिखता हैं।

   19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में भारतीय नेताओं ने जैसे– दादा भाई नौरोजी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, बिपिन चंद्र पाल आदि नेताओं ने ग्रामीण जनता को उसकी प्राचीन ग्राम पंचायतों तथा आत्मनिर्भर ग्रामीण समाज व्यवस्था की याद दिलाई। रविंद्रनाथ ठाकुर ने कहा कि "हमारा उद्देश्य यह होना चाहिए कि हम गांँवों को उनकी पिछली सत्ता लौटा दें, जिससे कि वे अपनी-अपनी आवश्यकताओं को पूरा कर सकें।" वे चाहते थे कि शासन की उच्चत्तर इकाइयाँ निचले स्तर पर आधारित हो। यही विचार व सुझाव आज वर्तमान समय में दिकता हैं। अब गांव में लोग योजना बनाते व पास करते हैं और उच्चत्तर प्रशासनिक इकाइयों को भेज दिया जा रहा हैं।

   इसके बाद 1907 में अंग्रेजों ने विकेंद्रीकरण के लिए शाही आयोग गठित की गयी। यह आयोग पंचायतों की स्थापना का सुझाव दिया। 1910 में इलाहाबाद के कांँग्रेज अधिवेशन में अंग्रेजों के समक्ष पंचायत गठन की मांग रखी गई। फिर 1915 में शासकीय रिपोर्ट में पंचायत गठन की अनुमति दी जानी चाहिए। 1919 में मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुझावों के कारण अनुमति तो दी गयी। लेकिन अब यह व्यवस्था प्रांतीय सरकारों का विषय बन गया। 1920 में मद्रास प्रांत में पंचायत कानून बना। इसमें स्थानीय संस्थाओं और पंचायतों को अधिकार दिए गये। इसके साथ ही ग्राम न्यायालय एक्ट (विलेज कोट्र्स एक्ट) के तहत पंचायतों को भी न्याय-संबंधित अधिकार दिये गये थे। 1922 के गया कांग्रेस के अधिवेशन में देश बन्धु चितरंजन दास ने कहा कि "स्वराज जनता का होगा तथा जनता ही स्वराज लेगी।" पुनः 1930 से पंचायतों के अधिकारों में कटौती की जाने लगी।" पुनः 1935 में प्रांतों को स्वायतता मिली। ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायतों का निर्माण होने लगा। 1935 के Government Of India Act में जनता की मांग मान ली गई। लेकिन आगे पंचायतों की दिशा और दशा में कोई खास सुधार नहीं दिखा। इस प्रकार ब्रिटिश शासकों की सभी सिफारिशें सिर्फ कागजी घोड़ा साबित हो गयी। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान पंचायतों पर सरकार किसी प्रकार का ध्यान नहीं दिया। वैसे 1941 में पंचायतों के लिए अलग से एक विधान बनाने का एक दस्तावेज तैयार हुआ था। जो 1946 में जाकर ग्राम पंचायत अधिनियम बना था। इसी अधिनियम के अंतर्गत समय-समय पर विभिन्न प्रांतों के लिए ग्राम पंचायत संबंधी अधिनियम पारित किये गये। जिसे हम निम्नलिखित ढंग से देख सकते हैं -

  • बंगाल में स्थानीय अधिनियम - 1919
  • मद्रास में स्थानीय सरकार अधिनियम - 1920
  • बम्बई ग्राम पंचायत अधिनियम - IV, 1920
  • उत्तर-प्रदेश पंचायत एक्ट, 1920 
  • बिहार सरकार अधिनियम - V, 1920
  • सेंट्रल प्रोविन्स पंचायत अधिनियम - V, 1920
  • पंजाब पंचायत अधिनियम - III, 1922
  • असम स्व-सरकार अधिनियम - 1925 
  • मैसूर ग्राम पंचायत अधिनियम - II, 1928


       समग्र दृष्टिकोण से अगर देखा जाय तो अध्ययन से लगता है कि ब्रिटिशकाल में सबसे ज्यादा पंचायती राज व्यवस्था पर कुठाराघात किया गया था। कई बार ब्रिटिस शासक पंचायत को अधिकार देने व गठित करने का आश्वासन देते थे और पारित भी कर देते थे। लेकिन पंचायतों पर अपने ब्रिटिश अधिकारियों व कर्मचारियों के माध्यम से उस पर अंकुश लगाए रहते थे। परिणामस्वरूप भारतीय ग्रामीण जनता को इस अवस्था में किसी प्रकार का कोई लाभ नहीं दिखता।

आजाद भारत में पंचायती राज -


संविधान सभा में पंचायतों को सुदृढ़ करने के लिए काफी विचार-वमर्श होता रहा। इस संबंध में गांधीवादी नेता अधिक मुखर थे। जैसे– अरुण चंद्र गुहा ने कहा की सम्पूर्ण संविधान के मसविधा में हम कांग्रेेस के दृष्टिकोण, गांधी जी के सामाजिक, आर्थिक दृष्टिकोण को कहीं भी नहीं पाते। तो वही एक सदस्य गोकुल भाई दौलतराम भट्ट ने कहा कि पंचायती राज के बिना तो भारत का संविधान हो ही नहीं सकता, पंचायतों के आधार के बिना भारत का विशाल भवन गिर जाएगा। एक बार संविधान का प्रारूप गांधी को दिखाया गया तो गांधी जी ने उसे देखकर लौटा दिया और कहा, इसमें तो पंचायतों की व्यवस्था है ही नहीं। यदि भारत को नष्ट नहीं होने देना है तो हमें सबसे निचले स्तर से काम आरंभ करना होगा, अन्यथा उच्च तथा मध्य का तंत्र लड़खड़ा कर गिर जाएगा। स्वराज का अर्थ कुछ लोगों के हाथ में क्षमता नहीं हैं। बल्कि  बहुमत के हाथ में यह क्षमता हो, जिससे वह शासन को नियंत्रित कर सकें। अर्थात् विकेंद्रीकरण ही भारत के तंत्र का समाधान हैं। तब जाकर पंचायतों को नीति-निर्देशक तत्त्वों में भाग-4 और अनुच्छेद-40 में उल्लेख करके स्थान दिया गया।

    भारतीय राजव्यवस्था में पंचायतों का इतिहास बहुत पुराना हैं। लेकिन सही मायने में भारतीय संविधान के 73वें संविधान संशोधन के 24 अप्रैल 1993 को कानून बन जाने के बाद भारत में मौजूदा पंचायती राज प्रणाली की शुरुआत हुई। भारत में पंचायती राजव्यवस्था प्रायः मरणासन्न पर लेटी हुई थी, उसमें जान फूंकने का काम 73वें संशोधन ने काम किया हैं। संवैधानिक दर्जा मिलने के बाद पंचायत व्यवस्था का जीवन सुरक्षित हो गया हैं। इससे पंचायतों का प्रशासनिक एवं वित्तीय अधिकार भी प्राप्त हुए। अब ग्रामीण विकास में सहायता मिलेगी। इसके कारण पंचायत व्यवस्था को त्रि-स्तरीय सरकार में अब इसे गांव की सरकार कहा जाने लगा हैं। वर्तमान में भारत में 2,31,630 पंचायतें हैं। 29,71,446 जनप्रतिनिधियों का चुनाव जनता द्वारा पाँच वर्षों के कार्यकाल के लिए किया जाता हैं।
जिसमें अलग-अलग प्रांतों में महिला जन प्रतिनिधियों का चुनाव भी किया जाता हैं। इनकी भागीदारी हो सके अथवा महिला सशक्तिकरण को ध्यान में रखकर इन्हें आरक्षण की भी व्यवस्था की गई हैं। 

   कार्यान्वयन की दृष्टि हम देखते हैं तो पाते हैं कि जब 73वें संशोधन के बाद जब 24 अप्रैल, 1993 को यह कानून लागू हुआ तो एक नया भाग, भाग-9 संविधान में जोड़ा गया। जिसका शीर्षक पंचायत हैं। इसके द्वारा अनुच्छेद 243 में पंचायतों से संबंधित प्रावधान किए गए हैं। इसमें 15 उप-अनुच्छेद हैं। इस कानून की मुख्य विशेषताएंँ निम्न प्रकार से हैंं -

  • ग्राम सभा एक ऐसा निकाय होगा, जिसमें ग्राम स्तर पर पंचायत क्षेत्र में मतदाताओं के रूप में पंजीकृत सभी व्यक्ति शामिल होंगे। ग्राम सभा राज्य विधानमंडल द्वारा निर्धारित शक्तियों का प्रयोग तथा कार्य को सम्पन्न करेगी।
  • 20 लाख से अधिक जनसंख्या वाले सभी राज्यों के लिए पंचायती राज की त्रि-स्तरीय प्रणाली होगी।
  • प्रत्येक 5 वर्ष में पंचायतों के गठन के लिए नियमित चुनाव होंगे। 
  • अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण और महिलाओं के लिए 33% आरक्षण की व्यवस्था हैं।
  • पंचायती राज संस्थाओं की वित्तीय शक्तियों के संबंध में  सिफारिशें करने के लिए वित्त आयोग की स्थापना की गई हैं।
  • पूरे जिले के लिए विकास योजना मसौदा बनाने के लिए जिला योजना समिति का गठन की व्यवस्था की गई हैं।
  • यह अधिनियम संविधान में अनुच्छेद-243 (जी) द्वारा एक नई 11वीं सूची जोड़ता है, जिसमें 29 विषय हैं।

        उक्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था को अपनाया गया हैं। ग्राम पंचायत (निचले स्तर पर) पंचायत समिति (मध्य स्तर पर) और जिला परिषद (जिला स्तर पर) कार्य करती है।

पंचायत का संगठन -


लगभग 500 तक की जनसंख्या पर एक ग्राम पंचायत होती है इसमें एक या एक से अधिक गांव सम्मिलित हो सकते हैं। ग्राम पंचायत का एक प्रधान का जनता द्वारा चुनाव होता हैं, जिसे मुखिया कहा जाता हैं। मुखिया के साथ-साथ अन्य सदस्यों का भी प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा ही निर्वाचन होता हैं। ग्राम पंचायत का संगठन निम्नलिखित अंगों का सम्मिलित रूप हैं-

  • ग्राम सभा
  • कार्यकारिणी समिति
  • ग्राम कचहरी
  • ग्राम सेवक और
  • ग्राम रक्षा दल।
पंचायत गठन के बाद 30 दिनों के अंदर प्रथम बैठक किया जाना आवश्यक हैं।

इस के संदर्भ में- 👇

न्याय पंचायत

ग्राम पंचायत के कार्य -

पंचायत के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं -

  • स्वच्छता एवं प्रकाश का प्रबन्ध करना
  • शुद्ध एवं स्वच्छ पेयजल का प्रबन्ध करना
  • शिक्षण संस्थाओं का प्रबन्ध एवं संचालन करना
  • सार्वजनिक स्वास्थ्य की देखभाल के लिए चिकित्सा केंद्र का प्रबन्ध करना
  • सिंचाई के लिए योजना तैयार करना
  • सार्वजनिक कुओं एवं तालाबों का प्रबन्ध करना
  • यातायात की सुविधा उपलब्ध कराना एवं उसका रख रखाव करना
  • कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन एवं संरक्षण देना
  • पशुपालन की सुविधा मुहैया कराना
  • पशु चिकित्सालय का प्रबन्ध करना
  • विश्रामगृह का प्रबन्ध करना
  • सहकारी क्षेत्रों एवं सामुदायिकता की भावना स्थापित करना
  • कृषि वानिकी को प्रोत्साहन करना
  • लघु वन उत्पादों के संग्रह का प्रबन्ध करना
  • लघु वन उत्पादों के लिए बाजार की व्यवस्था करना
  • कुष्ठ रोगियों व अन्य रोगी व्यक्तियों की उचित सहायता करना
  • अपाहिजों एवं असहायों की सहायता करना
  • प्रौढ़ शिक्षा को प्रोत्साहन देते हुए आवश्यक प्रबन्ध करना
  • स्थानीय विवादों का निपटारा व निष्पक्ष न्याय देना
  • वार्षिक योजना व बजट तैयार करना
  • स्थानीय क्षेत्र में आवास सुविधा का प्रबन्ध करना आदि।


मुखिया या सरपंच के प्रमुख कार्य -


  • ग्राम पंचायत का अधिवेशन बुलाना
  • ग्राम पंचायत की अध्यक्षता करना
  • ग्राम पंचायत के अन्य सदस्यों पर नियंत्रण रखना
  • वित्तीय व्यवस्था पर नियंत्रण रखना व भुगतानों एवं चेकों को जारी करना
  • पंजियों व अभिलेखों की सुरक्षा करना।

         उपर्युक्त अध्ययन के बाद कहा जा सकता है कि पंचायती राज व्यवस्था किसी-न-किसी रूप में प्रागैतिहासिक काल में भी विद्यमान था। क्योंकि हाॅब्स के अनुसार उसके प्राकृतिक व्यवस्था के मनुष्य भी आपस में समझौता किया करते थे। वर्तमान समय में यह व्यवस्था अपने अस्तित्व में है और सुरक्षित होते हुए जनोउपयोगी भी हैं। पंचायत व्यवस्था शासन की शक्ति का विकेंद्रीकरण का एक अच्छा उदाहरण हैं। यह गांँव के लिए गांँव की सरकार हैं। इसकी पहुंँच प्रत्येक ग्रामीण के दुख-सुख तक हैं। यह जनहित में एक अच्छी शासन की व्यवस्था हैं।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ